Tuesday, February 23, 2010

Wednesday, February 10, 2010

हमारी मातृभाषा हिन्दी है"
"हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दोस्तान हमारा"

हम भारतीय लोग दबी जबान से या न किस अपराध के डर से इन दो वाक्यों को बार-बार दोहराने का अथक प्रयास करते हैं ! अगर आज हमें इस बात का गर्व है कि भाषाई झगड़ों और राजनीति के दाव-पेचों से जूझती हिन्दी भारतीय संविधान की दया पर १४ सितम्बर १९४९ को "राष्ट्रभाषा" से उठाकर "राजभाषा" के पद पर आसीन कर दी गयी, तो इस बात का दुःख भी है कि १०० करोड़ से अधिक जनसंख्या वाले इस भारत देश ने अपनी एक भी भाषा को अन्तराष्ट्रीय भाषा का मंच प्रदान नहीं किया है ! हम भूल गए कि भारत की अपनी पहचान बनाने वाली कोई एक भाषा तो ऐसी हो जो हमे अन्तराष्ट्रीय मंच पर ले जा सके ! हम जात-पात और धर्म-अधर्म की लड़ाई लड़ते रह गए और में-मेरा, हम-हमारा न बन सका !

हिन्दी साहित्य के महान साहित्यकार "आचार्य महावीर प्रसाद" जी ने कहा था -
"विदेशी भाषा का दबाव किसी देश को अपनी चमक से भले ही कुछ समय के लिए वास्तविकता के प्रति अँधा बना दे, किन्तु ये जादू सदा नहीं रहता ! जल्द ही जनता जागती है और विदेशी भाषा का जूआ अपने कंधे से उतार फैंकती है !

मुझे उम्मीद है कि जल्द ही भारतीय जनता जागेगी और अंग्रेजी भाषा का जूआ अपने कंधे से उतार फेकेंगी !

Saturday, February 6, 2010

खाटूश्यामजी

Hyderabad Shyam Temple Idol1.JPG

हिन्दू धर्म के अनुसार, खाटूश्यामजी कलियुग मे कृष्ण का अवतार है, जिन्होनें श्री कृष्ण से वरदान प्राप्त किया था कि वे कलियुग में उनके नाम से पूजे जायेंगे। कृष्ण बर्बरीक के महान बलिदान से काफ़ी प्रसन्न हुये और वरदान दिया कि जैसे जैसे कलियुग का अवतरण होगा, तुम श्याम के नाम से पूजे जाओगे। तुम्हारे भक्तों का केवल तुम्हारे नाम का सच्चे दिल से उच्चराण मात्र से ही उद्धार होगा। यदि वे तुम्हारी सच्चे मन और प्रेमभाव रखकर पूजा करेंगे तो उनकी सभी मनोकामना पूर्ण होगी और सभी कार्य सफ़ल होंगे

खाटूश्यामजी भारत देश के राजस्थान राज्य के सीकर जिले में एक प्रसिद्ध कस्बा है, जहाँ पर बाबा श्याम का जगविख्यात मन्दिर है।

श्याम बाबा की अपूर्व कहानी मध्यकालीन महाभारत से आरम्भ होती है। वे पहले बर्बरीक के नाम से जाने जाते थे। वे महान पान्डव भीम के पुत्र घटोतकच्छ और नाग कन्या अहिलवती के पुत्र है। बाल्यकाल से ही वे बहुत वीर और महान यौद्धा थे। उन्होने युद्ध कला अपनी माँ से सीखी। भगवान शिव की घोर तपस्या करके उन्हें प्रसन्न किया और तीन अभेध्य बाण प्राप्त किये और तीन बाणधारी का प्रसिद्ध नाम प्राप्त किया। अग्नि देव ने प्रसन्न होकर उन्हें धनुष प्रदान किया, जो कि उन्हें तीनो लोकों में विजयी बनाने में समर्थ थे।

महाभारत का युद्ध कौरवों और पाण्डवों के मध्य अपरिहार्य हो गया था, यह समाचार बर्बरीक को प्राप्त हुये तो उनकी भी युद्ध में सम्मिलित होने की इच्छा जाग्रत हुयी। जब वे अपनी माँ से आशीर्वाद प्राप्त करने पहुंचे तब माँ को हारे हुये पक्ष का साथ देने का वचन दिया। वे अपने लीले घोडे, जिसका रंग नीला था, पर तीन बाण और धनुष के साथ कुरूक्षेत्र की रणभुमि की और अग्रसर हुये।

सर्वव्यापी कृष्ण ने ब्राह्मण वेश धारण कर बर्बरीक से परिचित होने के लिये उसे रोका और यह जानकर उनकी हंसी भी उडायी कि वह मात्र तीन बाण से युद्ध में सम्मिलित होने आया है। ऐसा सुनने पर बर्बरीक ने उत्तर दिया कि मात्र एक बाण शत्रु सेना को ध्वस्त करने के लिये पर्याप्त है और ऐसा करने के बाद बाण वापिस तरकस में ही आयेगा। यिद तीनो बाणों को प्रयोग में लिया गया तो तीनो लोकों में हाहाकार मच जायेगा। इस पर कृष्ण ने उन्हें चुनौती दी की इस पीपल के पेड के सभी पत्रों को छेद कर दिखलाओ, जिसके नीचे दोनो खडे थे। बर्बरीक ने चुनौती स्वीकार की और अपने तुणीर से एक बाण निकाला और इश्वर को स्मरण कर बाण पेड के पत्तो की और चलाया।

तीर ने क्षण भर में पेड के सभी पत्तों को भेद दिया और कृष्ण के पैर के इर्द-गिर्द चक्कर लगाने लगा, क्योंकि एक पत्ता उन्होनें अपने पैर के नीचे छुपा लिया था, बर्बरीक ने कहा कि आप अपने पैर को हटा लीजिये वर्ना ये आपके पैर को चोट पहुंचा देगा। कृष्ण ने बालक बर्बरीक से पूछा कि वह युद्ध में किस और से सम्मिलित होगा तो बर्बरीक ने अपनी माँ को दिये वचन दोहराये कि वह युद्ध में जिस और से भाग लेगा जो कि निर्बल हो और हार की और अग्रसर हो। कृष्ण जानते थे कि युद्ध में हार तो कौरवों की ही निश्चित है, और इस पर अगर बर्बरीक ने उनका साथ दिया तो परिणाम उनके पक्ष में ही होगा।

ब्राह्मण ने बालक से दान की अभिलाषा व्यक्त की, इस पर वीर बर्बरीक ने उन्हें वचन दिया कि अगर वो उनकी अभिलाषा पूर्ण करने में समर्थ होगा तो अवश्य करेगा. कृष्ण ने उनसे शीश का दान मांगा। बालक बर्बरीक क्षण भर के लिये चकरा गया, परन्तु उसने अपने वचन की द्डता जतायी। बालक बर्बरीक ने ब्राह्मण से अपने वास्तिवक रूप से अवगत कराने की प्रार्थना की और कृष्ण के बारे में सुन कर बालक ने उनके विराट रूप के दर्शन की अभिलाषा व्यक्त की, कृष्ण ने उन्हें अपना विराट रूप दिखाया।

उन्होनें बर्बरीक को समझाया कि युद्ध आरम्भ होने से पहले युद्धभूमीं की पूजा के लिये एक वीर्यवीर क्षत्रिय के शीश के दान की आवश्यक्ता होती है, उन्होनें बर्बरीक को युद्ध में सबसे वीर की उपाधि से अलंकृत किया, अतैव उनका शीश दान में मांगा. बर्बरीक ने उनसे प्रार्थना की कि वह अंत तक युद्ध देखना चाहता है, श्री कृष्ण ने उनकी यह बात स्वीकार कर ली। फाल्गुन माह की द्वादशी को उन्होनें अपने शीश का दान दिया। उनका सिर युद्धभुमि के समीप ही एक पहाडी पर सुशोभित किया गया, जहां से बर्बरीक सम्पूर्ण युद्ध का जायजा ले सकते थे।

युद्ध की समाप्ति पर पांडवों में ही आपसी खींचाव-तनाव हुआ कि युद्ध में विजय का श्रेय किसको जाता है, इस पर कृष्ण ने उन्हें सुझाव दिया कि बर्बरीक का शीश सम्पूर्ण युद्ध का साक्षी है अतैव उससे बेहतर निर्णायक भला कौन हो सकता है। सभी इस बात से सहमत हो गये। बर्बरीक के शीश ने उत्तर दिया कि कृष्ण ही युद्ध मे विजय प्राप्त कराने में सबसे महान पात्र हैं, उनकी शिक्षा, उनकी उपस्थिति, उनकी युद्धनीति ही निर्णायक थी। उन्हें युद्धभुमि में सिर्फ उनका सुदर्शन चक्र घूमता हुआ दिखायी दे रहा था जो कि शत्रु सेना को काट रहा था, महाकाली दुर्गा कृष्ण के आदेश पर शत्रु सेना के रक्त से भरे प्यालों का सेवन कर रही थीं।

कृष्ण वीर बर्बरीक के महान बलिदान से काफी प्रसन्न हुये और वरदान दिया कि कलियुग में तुम श्याम नाम से जाने जाओगे, क्योंकि कलियुग में हारे हुये का साथ देने वाला ही श्याम नाम धारण करने में समर्थ है।

उनका शीश खाटू में दफ़नाया गया। एक बार एक गाय उस स्थान पर आकर अपने स्तनों से दुग्ध की धारा स्वतः ही बहा रही थी, बाद में खुदायी के बाद वह शीश प्रगट हुआ, जिसे कुछ दिनों के लिये एक ब्राह्मण को सुपुर्द कर दिय गया। एक बार खाटू के राजा को स्वप्न में मन्दिर निर्माण के लिये और वह शीश मन्दिर में सुशोभित करने के लिये प्रेरित किया गया। तदन्तर उस स्थान पर मन्दिर का निर्माण किया गया और कार्तिक माह कीएकादशी को शीश मन्दिर में सुशोभित किया गया, जिसे बाबा श्याम के जन्मदिन के रूप में मनाया जाता है

  • बर्बरीक

खाटूश्यामजी का बाल्यकाल में नाम बर्बरीक थ। उनकी माता, गुरुजन एवं रिश्तेदार उन्हें इसी नाम से जानते थे। खाटूश्यामजी नाम तो कृष्ण ने उन्हें दिया था।

  • शीश के दानी

जब श्री कृष्ण ने उनसे उनके शीश की मांग की तो उन्होनें अपना शीश बिना किसी हिचकिचाहट के उनको अर्पित कर दिया और शीश के दानी के नाम से भक्त उन्हें पुकारने लगे। कृष्ण पान्डवों को युद्ध में विजयी बनाना चाहते थे, बर्बरीक पहले ही अपनी मा को हारे हुये का साथ देने क वचन दे चुके थे और युद्ध के पहले एक वीर पुरुष के सिर कि भेंट युद्ध भुमि को करनी थी अतैव कृष्ण ने उनसे शीश का दान मांगा।

लखदातार भक्तो कि मान्यता रहि है कि बाबा से अगर एक च्हीज मान्गी जाती है तो बाबा लाखो लाखो देता है इस लिये इसे लखदातार के नाम से भी जाना जाता है

हारे का सहारा जैसा कि इस आलेख मेइन बताया गया है बाबा ने हारने वाले पक्ष का साथ देने क प्रन्न लिया था इस लिये बाबा को हारे का सहारा भी कहा जाता है। जै श्री श्याम्

मौर मुकुत वाले घुन्घरालि लत्त वाले अप्ना च्हन्दा सा मुख्दा दिखाये जा







Wednesday, February 3, 2010

kaisa-lagta-hoga
श्री गणेश
मनुष्य अपने जीवन को सुखमय बनाने के लिए कोई भी कार्य आरम्भा करने के पूर्व एक अच्छे समय का चयन करता है आय सा इस लिए किया जाता है की बिना किसी परेशानी के जीवन को उन्नति के मार्ग पर आग्रसर किया जा सके, समय चयन के प्रक्रिया ही मुहुर्त कलती है मुहुर्त के चयन के लिए पंचांग,तिथि,वार ,नछत्र,कर्ण और योग को देखा जाता है मुहुर्त के स्न्दर्व में ऐसी कथा आती है की दुर्योधन की विजय और पांडव की पराजय के लिए धीरतीरासट ने मुहूर्त निकलवाया था इस बात का पता श्री कृष्ण को लगा तो उन्हों ने उस सारी समय में अर्जुन को गीता का उपदेश दे डाला/जय से ही कोरवों का सुभ समय समाप्त हुवा और पांडवों के लिए उत्तम समय आया उसी छन युद्ध का श्री गनेश कर दिया.
जो उत्तम समय धीरतीरासट ने चुना था उसे श्री कृष्ण ने व्यतीत करवा दिया और एक प्रकार से युद्ध को पांडवों के पक्छ में कर दिया वास्तव में मुहूर्त का अपनी वैज्ञानिकता,आप न महत्वा है इसका निर्धारण अगर जोतिसी सिद्धांत और ग्रहों के आधार पर किया जाय तो कार्य की सफलता कई गुना बढ़ जाती है
असुभ मुहूर्त में किये कार्य का परिणाम असुभ होता है जेसे भारत को स्वतंत्रता १५ अगस्त १९४७ की मध्य रात्रि को ब्रिष लगन में मिली थी उस समय ब्रिष लगा में रहू था और केंद्र स्थान खाली था सारे ग्रह कालसर्प योग में थे या सुभ नहीं था परिणाम स्वरुप आजादी के बाद रास्ट्रपिता की हत्या,बटवारे में लाखो की मृत्यु और विश्थापन से सभी परिचित है अगर वेदिक काल की ओर देखे तो अथर्वा वेद में सुभ मुहुर्त से सम्बंधित अनेक विवरण मिलते है इसमें दीर्घायु सुख संम्पत्ति ,सत्रु पर विजय आदि मुहूर्तो का उल्लेख मिलता है मुहूर्त में तिथि वर के बाद नछत्र का विशेष महत्वा है ये नछत्र मुख्यातह २७ है लेकिन उत्त्र्रा आसाढ़ के चतुर्थ चरण आयर स्रवन नछत्र के १५वे भाग को अभिजित नछत्र के संज्ञा दी गयी है जिससे इसकी संख्या २८ होगई है अभिजित नछत्र सभी कार्यों के लिए सुभ माना गया है प्रतेक दिन का मध्यं भाग अभिजित मुहुर्त कहलाता है जो मध्य से पहले और बाद में ४८ मिनट का होता है इस काल में लगभग सभी दोषों के निवारण की अनोखी सकती होती है इसके बाद कृतिका अन्य सभी मुहूर्तो से अधिक सुभ है मुहुर्त के संन्दर्व में चौघडियों के विषय में विचार करना आवश्यक है अतः किसी दिसा के यात्रा में चौघडियों के स्वामीका विचार भी करलेना चाहिए अति आवश्यक होने पर रविवार को पान या घी,सोमवार को दर्पण देखकर ,मंगलवार को गुड खा कर ,बुद्धवार को धनिया या तिल खा कर ,ब्रिहस्पतिवर को जीरा या दही खाकर,शुक्रवार को दही या दूध पि कर और सनी वर को अदरख या उड़द खा कर प्रस्थान किया जा सकता है
व्यक्तिगत कार्यों के अलावा राजकीय कार्यों में भी मुहूत लाभकारी सिद्ध होतें है मुहूर्त का सही विवेचना कर अनेक दुस्प्रभावों को दूर किया जा सकता है
अतः सभी तथ्यों को ध्यान में रख कर ही सुभ कार्य करना चाहिए..............................
आप लोगों का ही सरयू साव
जय माता दी