हमारी मातृभाषा हिन्दी है"
"हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दोस्तान हमारा"
हम भारतीय लोग दबी जबान से या न किस अपराध के डर से इन दो वाक्यों को बार-बार दोहराने का अथक प्रयास करते हैं ! अगर आज हमें इस बात का गर्व है कि भाषाई झगड़ों और राजनीति के दाव-पेचों से जूझती हिन्दी भारतीय संविधान की दया पर १४ सितम्बर १९४९ को "राष्ट्रभाषा" से उठाकर "राजभाषा" के पद पर आसीन कर दी गयी, तो इस बात का दुःख भी है कि १०० करोड़ से अधिक जनसंख्या वाले इस भारत देश ने अपनी एक भी भाषा को अन्तराष्ट्रीय भाषा का मंच प्रदान नहीं किया है ! हम भूल गए कि भारत की अपनी पहचान बनाने वाली कोई एक भाषा तो ऐसी हो जो हमे अन्तराष्ट्रीय मंच पर ले जा सके ! हम जात-पात और धर्म-अधर्म की लड़ाई लड़ते रह गए और में-मेरा, हम-हमारा न बन सका !
हिन्दी साहित्य के महान साहित्यकार "आचार्य महावीर प्रसाद" जी ने कहा था -
"विदेशी भाषा का दबाव किसी देश को अपनी चमक से भले ही कुछ समय के लिए वास्तविकता के प्रति अँधा बना दे, किन्तु ये जादू सदा नहीं रहता ! जल्द ही जनता जागती है और विदेशी भाषा का जूआ अपने कंधे से उतार फैंकती है !
मुझे उम्मीद है कि जल्द ही भारतीय जनता जागेगी और अंग्रेजी भाषा का जूआ अपने कंधे से उतार फेकेंगी !
Wednesday, February 10, 2010
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